गोत्र-प्रवर आदि का ज्ञान अत्यंत आवश्यक

CI@Jyotish25
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समस्त धार्मिक कार्य सङ्कल्प-पूर्वक करने का ही विधान धर्मशास्त्र-सम्मत है। सङ्कल्प के ही द्वारा सन्ध्या वन्दनादि समस्त नित्य कर्म एवं कर्मकाण्डादि यज्ञकार्य सम्पन्न होते हैं। बिना सङ्कल्प के किसी भी धार्मिक कार्य की सफलता सम्भव नहीं है। सङ्कल्प में गोत्र और प्रवर का उच्चारण करना भी अनिवार्य है। इनमें नव बातें सभी द्विज-वर्ग को जानना चाहिये, जो निम्नाङ्कित हैं।

  • १. गोत्र-गोत्र उसको कहते हैं, जिस ऋषि से उत्पन्न हुए हैं, वही मुख्य गोत्र कहलाता है। उसी को सन्ध्या, सङ्कल्पादि समस्त कार्यों में उच्चारण करते हैं।
  • २. प्रवर-यज्ञोपवीत में जो ग्रन्थियाँ (गाँठें) दी जाती हैं, उनको प्रवर कहते हैं। उन ऋषियों के नाम अलग-अलग हैं। अतः द्विजातियों को अपने-अपने वेद के अनुसार तद्-तद् देवताओं का पूजन करना चाहिये, जिनके जो प्रवर हैं, वे ही पृथक् पृथक् उनके ऋषि हैं।
  • ३. वेद-वेद उसे कहते हैं, जो परमेश्वर के मुख से उत्पन्न हुए हैं। वे चार हैं-सामवेद, यजुर्वेद, ऋग्वेद और अथर्ववेद। सभी ब्राह्मणों के वेद पृथक्-पृथक् हैं, इसका ज्ञान सभी के लिए परम आवश्यक है।
  • ४. उपवेद-उपवेद वे हैं, जो वेद के अङ्ग माने जाते हैं।
  • ५. शाखा-शाखा उसको कहते हैं, जिस समय से उत्पन्न एवं प्रसिद्धिप्राप्त किये।
  • ६. सूत्र-सूत्र उसको कहते हैं, जिस ऋषि-द्वारा यज्ञोपवीत का सूत्र प्राप्त हुआ हो। उन्हीं के नाम से सूत्र प्रसिद्ध है।
  • ७. शिखा-चोटियों की ग्रन्थि को शिखा के नाम से जाना जाता है। वह किसी की दक्षिण-शिखा एवं किसी की वाम शिखा होती है।
  • ८. पाद-पैर को पाद कहते हैं। यह भी किसी का दक्षिण किसी का वाम होता है। मन्त्रयुक्त जल से स्पर्श करना एवं यज्ञादि में जिसका जो पाद हो वहीपैर पहले घुलाना और पूजन कराना चाहिए।देवता-वेदों के अनुसार ही देवता के पूजन करने का विधान है।
  • ९. जैसे-सामवेद के देवता विष्णु, यजुर्वेद के देवता शिव, ऋग्वेद के ब्रह्मा एवं अथर्ववेद के देवता इन्द्र कहे गये हैं।
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